गोमुख : गंगा उद्गम का अद्भुत वैदिक रहस्य

गोमुख—जहाँ पृथ्वी का मुख फाड़कर दिव्य गंगा प्रकट होती हैं। यह कोई मात्र भूगोल नहीं, अपितु ऋषि-तपस्या से स्पंदित एक अदृश्य तीर्थक्षेत्र है, जहाँ प्रकृति और अध्यात्म एकाकार हो उठते हैं। यह स्थल दृश्य ब्रह्मांड और अदृश्य सिद्धलोक के संगम का द्वार है। दुर्गम यात्रा, दिव्य धारा–
गंगोत्री से आगे बढ़ते हुए चीड्वासा मार्ग से होकर गोमुख पहुँचना होता है। कहीं मार्ग चट्टानों का है, कहीं हिमखंडों का। यह कोई सामान्य तीर्थयात्रा नहीं, यह आत्मा की तपश्चर्या है। यहाँ बर्फ के ग्लेशियरों के गर्भ से गंगा का जल अति तीव्र वेग से निकलता है। किंतु यह भी एक वैदिक संकेत है—‘जलं ब्रह्म स्वरूपं’, यहाँ जल केवल जल नहीं, प्राणमयी चेतना है।

वर्तमान में जिस ग्लेशियर से गंगा प्रवाहित होती हैं, उसका आकार प्रतिवर्ष क्षीण होता जा रहा है। प्राचीन वर्णनों के अनुसार यह ग्लेशियर कभी १०० फुट ऊँचा एवं आधा मील चौड़ा था। इसके दोनों ओर महापर्वत स्थित हैं—बद्रीनाथ और केदारनाथ। इन पर्वतों के मध्य यह स्थल दैवी संतुलन और शक्तियों की गोपनीय स्थली प्रतीत होता है।

सिद्धाश्रम : अदृश्य लोक की उपस्थिति–
गोमुख के समीप ही सिद्धाश्रम विद्यमान है, जो सामान्य दृष्टि से अदृश्य है। यहीं कहीं, जहाँ वृक्ष विलीन होने लगते हैं और मौन की गूंज सुनाई देती है—वहीं सिद्धों की यह दिव्य भूमि आरंभ होती है। नंदनवन से होकर जाने पर चौखम्बा पर्वत के दर्शन होते हैं, जहाँ से शिवलिंग पर्वत और केदार की पृष्ठभूमि स्पष्ट होती है। यह क्षेत्र वैदिक ऋषियों की साधना का सजीव साक्ष्य है।

गोमुख का वैदिक तात्पर्य–गोमुख” शब्द मात्र भू-आकृति नहीं है, यह एक वेदसम्मत प्रतीक है।
‘गो’ का अर्थ वेद में पृथ्वी भी है—निघंटु में पृथ्वी के २२ नामों में एक है ‘गो’।
जिस स्थान पर पृथ्वी का मुख फटा और दिव्य जलधारा निकली, वही ‘गोमुख’ कहलाया।

कुछ किंवदंतियों में कहा गया है कि गंगा जिस स्थल से निकलती हैं, वहाँ की चट्टानों की बनावट गौमुख के समान है। परन्तु वैदिक दृष्टि में इसका अर्थ और गहन है—यह ‘भूमि से देवत्व का प्रस्फुटन’ है।

गंगा का वास्तविक उद्गम अदृश्य है। हिमखंडों से ढँका आधा मील लंबा भाग केवल उसकी दृश्य अभिव्यक्ति है। परंतु उसका मूल उद्गम किसी सूक्ष्म लोक से है—योगियों और तपस्वियों के ज्ञानलोक से। गंगा का गूढ़ प्रवाह–
गंगा ग्लेशियर के पूर्व-पश्चिम में केदारनाथ और बद्रीनाथ हैं। बद्रीनाथ से अलकनंदा और ऋषिगंगा प्रवाहित होती हैं, जिनमें से ऋषिगंगा की एक धारा कुछ दूरी पर अदृश्य हो जाती है। माना जाता है कि यह कैलाश की ओर जाती है—तपस्वियों की दिव्य गाथाओं का रहस्य बनकर।

गंगोत्री क्षेत्र में केदारगंगा, रुद्रगंगा, पकोड़ीगंगा आदि का संगम है। यहाँ स्थित लक्ष्मी वन को गंगा का बागीचा कहा जाता है। भगीरथ शिला, गौरीकुंड आदि स्थलों से यह स्पष्ट होता है कि यह संपूर्ण क्षेत्र देवगाथाओं का सजीव नाट्यगृह है। पार्वती जी ने यहाँ शंकर जी को प्राप्त करने हेतु तप किया, और महाराज भगीरथ ने यहीं माँ गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु घोर तपस्या की।

वर्तमान संकट और चेतावनी–
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से गोमुख पीछे हटता जा रहा ह।अब तक 18 किलोमीटर पीछे। गोमुख एक जीवित चेतना की भाँति अपनी अवस्था बदल रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार अब गंगा की धारा नंदनवन ग्लेशियर से अधिक प्रवाहित हो रही है। गोमुख में एक झील बन गई है, जिससे उसकी धारा का दिशा-परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन एक सूक्ष्म संकेत है—धरा के संतुलन के बिगड़ने का।

यदि गोमुख पूर्णतः नष्ट हुआ, तो यह न केवल भौगोलिक संकट होगा, अपितु संस्कृति और अध्यात्म का भी आघात होगा। यह देवभूमि की चेतना का अपघटन होगा।

देवप्रयाग : गंगा का पूर्ण अभिसंयोग–
देवप्रयाग में सात नदियों—भागीरथी, जाह्नवी, मंदाकिनी, भील गंगा, ऋषिगंगा, सरस्वती और अलकनंदा—का संगम होता है, तभी ‘गंगा’ नाम पूर्ण रूप से प्रकट होता है। यह मिलन कोई साधारण जलधाराओं का नहीं, अपितु सप्तऋषियों की तपश्चर्या से सजीव हुई सप्तजीवन-शक्तियों का संगम है।

गंगा – मात्र नदी नहीं, चेतना हैं।

गोमुख न केवल भौगोलिक स्थल है, वह वेदमाता गंगा का अधिष्ठान है। उसका क्षरण केवल हिम के पिघलने का नहीं, हमारी संवेदना के क्षरण का प्रतीक है। यह लेख एक निमंत्रण है—हमें जागने का, अपनी प्रकृति और संस्कृति की रक्षा हेतु।

वेद कहते हैं –
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्थाः न ऊर्जे दधातन।”
(ऋग्वेद 10.9.1)
“हे जलो! तुम अमृतमयी हो, जीवनदायिनी हो, तुम्हीं में ओज है, बल है।”

गोमुख की रक्षा, गंगा की रक्षा है। गंगा की रक्षा, जीवन की रक्षा है।

हर हर महादेव।

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